बंजारा बोली को मातृसत्ता का ‘लाॅजिक पासवर्ड’ कहना — भाषाशास्त्र या भावुकता?

बंजारा बोली को मातृसत्ता का ‘लाॅजिक पासवर्ड’ कहना — यह भाषाशास्त्रीय विश्लेषण है या केवल भावुक अभिव्यक्ति? इस लेख में हम बंजारा बोली की संरचना, उसकी सांस्कृतिक जड़ें और मातृसत्तात्मक सोच से उसके संबंध की गहराई से पड़ताल करते हैं।

बंजारा बोली को मातृसत्ता का ‘लाॅजिक पासवर्ड’ कहना — भाषाशास्त्र या भावुकता?

१. बंजारा बोली में ‘अ’ नहीं? — यह कैसा दावा है
यह कहना कि बंजारा बोली में “अ” स्वर नहीं पाया जाता, और फिर उसी साँस में कहना कि “खावच्, पीवच्” जैसे शब्दों में “अ” पसरट रूप में उच्चरित होता है — यह आपसी विरोधाभास नहीं तो और क्या है… यदि कोई स्वर व्यवहार में है — चाहे मुखर हो या पसरट — वह मौजूद है… भाषा विज्ञान केवल स्पष्ट ध्वनि की ही नहीं, छुपी ध्वनि की भी गणना करता है… अतः “अ” को नकारना फिर उसी के उदाहरण देना, यह भाषिक विमर्श नहीं, भाषिक भ्रम है

२. दीर्घ-ह्रस्व स्वर का अंतर न होना = परिपक्वता नहीं, अधूरापन
बंजारा बोली में ई/इ, ऊ/उ का अर्थभेद न होना यह नहीं दर्शाता कि वह किसी गूढ़ नियम से संचालित हो रही है… बल्कि यह दर्शाता है कि वह अब तक उस व्याकरणिक विभाजन की दिशा में नहीं पहुँची है, जहाँ अर्थभेद स्वर-संवेदन पर आधारित होता है… संस्कृत, प्राकृत, मराठी, तमिल — सभी में दीर्घ और ह्रस्व स्वर का अंतर अर्थनिर्माण करता है… अगर बंजारा बोली में यह अंतर नहीं है, तो यह उसकी प्राचीनता नहीं, विकासशील अवस्था का संकेत है… इसे गर्व नहीं, शोध की चुनौती समझा जाना चाहिए

३. ‘य’ और ‘र’ से लिंग भेद? — यह कल्पना की सीमा है
‘नीर मांदा’, ‘नीssये मांदी’ जैसे उदाहरणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि बंजारा बोली में “य” स्त्रीलिंग और “र” पुल्लिंग का संकेतक है — भाषाशास्त्र के नियमों की खिल्ली उड़ाना है… भाषाओं में लिंग-चिह्न सामान्यतः प्रत्यय, पदक्रम या विशेष क्रियाओं से जुड़े होते हैं… ‘य’ और ‘र’ के माध्यम से लिंग सूचकता कोई विश्वसनीय सिद्धांत नहीं है… और वह भी केवल दो उदाहरणों के आधार पर पूरे भाषा-तंत्र का लिंगविज्ञान गढ़ देना — यह भाषिक शोध नहीं, पूर्वग्रहजन्य निष्कर्षबाजी है

४. बंजारा बोली मातृसत्ताक है? — कोई सांस्कृतिक या भाषिक प्रमाण?
यदि ‘या’ ध्वनि का संबंध माँ या स्त्री से जोड़ा जाए, और फिर उससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि बंजारा बोली मातृसत्ताक संस्कार की प्रतीक है — तो यह पौराणिक विमर्श की शैली हो सकती है, भाषाविज्ञान की नहीं… दुनिया की अधिकतर भाषाओं में ‘माँ’ के लिए ma/amma जैसा कुछ प्रयोग होता है… क्या उसे मातृसत्ता का प्रमाण माना जाए? नहीं… संस्कार और सत्ता दो अलग बात हैं… मातृवाचक पदों का होना समाज के सत्ता-संरचना से प्रमाणित नहीं होता… अतः “या = मातृसत्ता” यह लॉजिक नहीं, लॉजिक का पासवर्ड तोड़ने जैसा है…

५. बंजारा बोली का ‘स्वर क्रम’ और ‘ध्वनि विकास’
कहा गया कि ‘य’ और ‘र’ पहले आते हैं, जबकि ‘अ, इ, उ’ बाद में — यह भी भाषाशास्त्र में पूर्णतः अवैज्ञानिक है… ध्वनि-विकास के सिद्धांत (phonological evolution) के अनुसार, सभी स्वरों और अर्धस्वरों का क्रम ध्वनि की सहजता, श्वास की गति और जीभ की स्थिति पर आधारित होता है… ‘य’ और ‘र’ को पहले उत्पन्न स्वर मानना केवल आकांक्षाजन्य व्याख्या है… भाषाशास्त्र में ऐसे निष्कर्ष के लिए ध्वनि-नमूनों (corpus) और तुलनात्मक पद्धतियों की आवश्यकता होती है, भावनाओं की नहीं…

६. व्यक्ति के नामों में ‘या’ का प्रयोग = मातृवाचन? नहीं
‘मेरसंग्या’, ‘फूलिया’, ‘कसन्या’ जैसे नामों के अंत में ‘या’ का आना कोई असाधारण बात नहीं है… भारतीय उपमहाद्वीप की अनेकों लोकभाषाओं में नामों में ऐसी संधि या प्रत्यय जुड़ते हैं — वह केवल ध्वनि-सुंदरता या परंपरागत लय के लिए होते हैं… इनसे मातृसत्ता सिद्ध करना समाजशास्त्र की दृष्टि से भी अवैज्ञानिक है… कोई भी प्रत्यय केवल नामों में आकर सामाजिक सत्ता-क्रम को नहीं दर्शाता… इस प्रकार की अतिशयोक्तियाँ भाषा को समझने के बजाय, उसे एक मिथकीय ढाँचे में कैद करने का प्रयास बन जाती हैं…

७. संतोष शेणई का उद्धरण: संदर्भहीन व्याख्या
“भाषा संस्कृति की वाहक है” — यह बात कोई असहमति योग्य नहीं… लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हर ध्वनि या प्रत्यय एक पूरी सामाजिक व्यवस्था का द्योतक बन जाए… भाषा में अर्थ के स्तर पर जो भी सांस्कृतिक संकेत होते हैं, वे लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया में बनते हैं… बंजारा बोली के कुछ स्वर या ध्वनियाँ अगर लोककथाओं या स्त्री-वाचक परंपराओं में पाई जाती हैं, तो उन्हें एक घटक के रूप में देखा जाना चाहिए — न कि पूरे भाषा-संस्कार का अंतिम सत्य समझना चाहिए…

बंजारा बोली सम्मानजनक है, किंतु उससे अंधश्रद्धा न जोड़ें
बंजारा बोली का एक समृद्ध मौखिक और सांस्कृतिक इतिहास है — इसमें कोई संदेह नहीं… पर इसका सम्मान भावनाओं के अतिवाद या भाषाशास्त्र के मनमाने प्रयोगों से नहीं किया जा सकता… उसे भाषा के वैज्ञानिक मापदंडों पर खड़ा करके, तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उसके स्वरूप और संभावनाओं को उजागर करना ही असली रास्ता है… नहीं तो बंजारा बोली का नाम लेकर केवल गूढ़ मिथकीय वाक्य बनते रहेंगे — और युवा पीढ़ी भाषा को नहीं, केवल भाषाई गपों को विरासत में लेती रहेगी…

राजूसिंग आड़े 
(खंडनगाथा विशेष खंड)