चौहान वंश: बंजारा समाज में एक गौरवगाथा
चौहान वंश का बंजारा समाज में गौरवशाली इतिहास जानें। वीरता, परंपरा और संस्कृति से भरपूर एक प्रेरणादायक विरासत की कहानी।

चौहान वंश बंजारा समाज में केवल एक नाम नहीं… यह एक चलती-फिरती परंपरा है… एक स्मृति… एक मर्यादा… और सामाजिक अनुशासन की वह व्यवस्था जिसे किसी राजकीय लेखनी ने नहीं… बल्कि समाज ने स्वयं गढ़ा है… भारत के इतिहास में चौहानों को अग्निवंशी राजपूतों के रूप में दर्ज किया गया है… परंतु बंजारा चौहानों की यह शाखा राजपूत परंपरा की नकल नहीं… बल्कि एक ऐसी स्वतंत्र वंशीय चेतना है जो मध्यकाल में राजपूत चौहानों के साथ सांस्कृतिक सहयोग व सैन्य गठजोड़ से प्रभावित हुई… जिसका आरंभ बंजारा मौखिक परंपरा के अनुसार राजपूत सामंतों के साथ कार्यरत भिखमसिंह नामक पुरुष से होता है… जिन्हें बंजारा चौहान वंश का आदि पुरुष माना जाता है…
भिखमसिंह के वंश से बंजारा समाज में छह प्रमुख पट्टियाँ (पगड़ी परंपरा पर आधारित) प्रसारित हुईं… ये पट्टियाँ थीं — लावडिया, कुर्हा, पालथिया, केलुत, सपावट, और मूड़… इनका नामकरण राजपूत सामाजिक संरचना से प्रेरित था… परंतु इनकी कार्यप्रणाली पूर्णतः बंजारा समाज की मौलिक व्यवस्था थी… प्रत्येक पट्टी के अंतर्गत कई उपशाखाएँ (थड़ी या वंश) थीं… जिनकी कुल संख्या ७७ मानी जाती है… पगड़ी केवल सिर का वस्त्र नहीं थी… वह पहचान… उत्तरदायित्व… और अनुशासन का प्रतीक थी… इन पट्टियों और उनकी शाखाओं की सूची इस प्रकार है…
लावडिया पट्टी - कुल १४ शाखाएँ…
कंचनिया… हरनाल… रंगाराम… खाट… खरवास… लंगोटिया… राजसिंहिया… रकडलिया… गढ़वालिया… बिंदराव… खरेटी… गुलजारिया… बेहडिया… झुंझनिया…
कुर्हा पट्टी – कुल १३ शाखाएँ…
मदारिया… गंगाराम… तांबटिया… सिंघोटिया… वठोडिया… बिसनिया… सोमसिंहिया… टकाटिया… गोटवानी… शेखावतिया… दलपतिया… धनेरिया… खेतपालिया…
पालथिया पट्टी – कुल १३ शाखाएँ…
फुलजी… बावलिया… रामनारायण… कोचरिया… गहेरवालिया… हुकुमसिंहिया… घोड़ेलिया… बिंझालिया… पतंगे… महालिया… रुपालिया… धरनिया… खंगरिया…
केलुत पट्टी – कुल १२ शाखाएँ…
दुल्हनिया… लीलाराम… बंधनिया… जसरथिया… कठारिया… रामबकसिया… पेठालिया… बेहनवालिया… गोपालनिया… खिदमतिया… लाड़सिंहिया… छबीलालिया…
सपावट पट्टी – कुल १३ शाखाएँ…
धोकलिया… परसराम… तेजा… डावर… रूपारामिया… बतीसिया… झालरिया… ऊदलिया… बेंगालिया… भंवरिया… कचरूवालिया… नाहरसिंहिया… संतरामिया…
मूड़ पट्टी – कुल १२ शाखाएँ…
गंगानाथ… झाबर… लच्छा… गलालिया… बदरथिया… हेतसिंहिया… मुरारिया… बुगड़िया… देवकरणिया… पेखामिया… शंकरलालिया… जेठारामिया…
इन सभी शाखाओं की पहचान उनके नाम से अधिक उनके आचरण… विवाह अनुशासन… और पगड़ी परंपरा से थी… हर शाखा का अपना नियम… अपना लोकाचार था…
उदाहरणतः
- मूड़ पट्टी की पगड़ी में नीली पट्टी अनिवार्य थी, जो राजपूत परंपरा में शौर्य और वफादारी के प्रतीक से प्रेरित थी
- लावडिया पट्टी की पगड़ी पर सुनहरी पट्टी राजपूत सामंतों की समृद्धि के प्रतीकों से अनुकूलित थी
- कुर्हा पट्टी की पगड़ी में तिकोनी मोहर राजपूत योद्धाओं की तलवारों की मूठ के रूपांकनों का रूपांतर थी
- पालथिया पट्टी की पगड़ी के किनारे जरी की कढ़ाई मेवाड़ राजदरबार की शिल्पकला की छाप लिए हुए थी
- सपावट पट्टी की शाखाएँ (जैसे धोकलिया) लाल रंग की पगड़ी पहनती थीं, जो राजपूतों के युद्ध-बंदों की स्मृति को जीवित रखती थी
- केलुत पट्टी में अवसरानुसार रंग प्रचलित थे, शादियों में केसरिया… सामुदायिक सभाओं में सफ़ेद
विवाह संबंध तय करते समय केवल जाति ही नहीं… पट्टी और शाखा की जानकारी आवश्यक होती थी… क्योंकि अपने ही पट्टी/वंश में विवाह निषिद्ध माना जाता था… यह नियम राजपूतों की गोत्र व्यवस्था से मिलता था… परंतु बंजाराओं ने इसे अपनी व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला… यह पूरी व्यवस्था क्षेत्रानुसार भिन्न हो सकती है… जैसे तेलंगाना में मूड़ पट्टी "मुत्त" और सपावट "शिपावट" कहलाती है… कुछ शाखाएँ (जैसे गुलजारिया) भिन्न पट्टियों में भी मिलती हैं…
यह संपूर्ण व्यवस्था किसी ‘राजपूत परंपरा’ की नकल नहीं थी… बल्कि दोनों समुदायों के ऐतिहासिक सह-अस्तित्व का प्रतिबिंब थी… जहाँ बंजाराओं ने सैन्य आपूर्ति और संदेशवाहक के रूप में राजपूत शासकों की सेवा की… और बदले में उनकी सांस्कृतिक विरासत से तत्व ग्रहण किए… चौहान वंश के ये पगड़ीवाले लोग कोई दरबारी योद्धा नहीं थे… वे मार्गदर्शक… व्यापारी… रक्षक और आयोजक थे… जिन्होंने मेवाड़ के महाराणा प्रताप जैसे राजपूत शासकों के लिए रसद पहुँचाकर देश के कोने-कोने में व्यापार के साथ-साथ सामाजिक अनुशासन का बीज बोया…
जो विचारधाराएँ यह कहती हैं कि चौहान नाम बंजारा समाज में ‘उधार लिया गया’ है… वे न समाज को जानती हैं… न उसकी परंपरा को… चौहान बंजारा वंश की शाखाएँ अपने भीतर जो अनुशासन लिए हुए हैं… वह राजपूतों की क्षत्रिय परंपरा से भिन्न होते हुए भी उसकी पूरक है… यहाँ न तो कोई रक्त की शुद्धता की बात होती है… न वर्ण की… यहाँ केवल कर्तृत्व… मर्यादा… और स्मृति को वंश माना जाता है…
चौहान वंश बंजारा समाज में एक जीवंत वंशगाथा है… जो राजपूत इतिहास की एक स्वतंत्र धारा के रूप में प्रवाहित हुई है… पगड़ी केवल कपड़ा नहीं… यह "आन-बान-शान" का प्रतीक है… जिसे बंजारा चौहानों ने राजपूत सहयोगियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर औरंगजेब के दमन के दौर में भी बचाए रखा… आज भी विशेष अवसरों पर इन रंगों और चिह्नों का महत्व बना हुआ है… यद्यपि कुछ क्षेत्रों में यह प्रथा विलुप्त हो रही है… यह गाथा भारत की लोक-सांस्कृतिक विविधता का अमर प्रमाण है…
-राजूसिंग आडे