"बंजारों की वीरगाथा" - अनकही कहानी

यह अनकही कहानी एक ऐसे लोगों की बहादुरी की गाथा है, जिनकी पहचान किसी एक भूमि या किसी एक सीमा तक सीमित नहीं थी; जिन्होंने अनंत आकाश के नीचे खुले आसमान को अपनी छत माना और धरती के हर रास्ते को अपना घर माना।

"बंजारों की वीरगाथा" - अनकही कहानी
Credit: Slum Films

यह कहानी है उन पथिकों की जिनके कदम कभी नहीं रुके, जिनकी रगों में आजादी का खून बहता था और जिनकी आत्माओं में संघर्ष की ज्वाला जलती रहती थी; और अगर वे चले तो हर रास्ता उनका हो गया, और अगर वे नहीं रुके तो हर मंजिल छोटी पड़ गई। खानाबदोशों का इतिहास सिर्फ एक समुदाय की कहानी नहीं है, बल्कि एक आत्मा का उदाहरण है; आजादी का जज्बा, संघर्ष का जज्बा और परंपराओं को हर हाल में जीवित रखने का संकल्प, उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था जिसका हर पन्ना एक नए संघर्ष, एक नई यात्रा और एक नए अध्याय की गवाही देता है।

बंजारा नाम का उल्लेख मात्र से ही एक खानाबदोश लेकिन अनोखी जाति का ध्यान आता है जो अपनी परंपराओं से गहराई से जुड़ी हुई है। यह पूरे देश में फैला हुआ है, टंडो में संगठित है, और स्वतंत्र जीवन के सिद्धांतों का पालन करता है। बंजारों का जीवन उनकी यात्रा में है। वे जहां भी जाते हैं, अपने रीति-रिवाजों, पारंपरिक पोशाक, भाषा और कला के माध्यम से अपनी अलग पहचान बनाते हैं। यही कारण है कि विभिन्न राज्यों में उनकी स्थिति अलग-अलग है। कुछ राज्यों में उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी गई है, जबकि अन्य में उन्हें अछूत खानाबदोश जनजातियों में शामिल किया गया है, लेकिन उनकी असली पहचान किसी सरकारी श्रेणी में नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति, उनकी स्वतंत्रता और उनके गौरवशाली इतिहास में निहित है।  उनके गीत, उनके नृत्य, उनके पारंपरिक आभूषण और उनके संघर्ष की कहानियां, ये सभी मिलकर बंजारा लोगों को एक विशिष्ट पहचान देते हैं जो समय के साथ और मजबूत होती गई है। गोर बंजारा समुदाय का इतिहास किसी शाही विरासत से कम नहीं है।

उनकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उनके अस्तित्व के सूत्र हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सिंधु घाटी सभ्यता तक ले जाते हैं। 1921 में जब हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई शुरू हुई तो इतिहास के पन्नों से एक ऐसा रहस्य उजागर हुआ जिसने बंजारा लोगों की पहचान को और मजबूत कर दिया।  उत्खनन के दौरान प्राप्त वास्तुकला और व्यापार प्रणालियों से यह स्पष्ट हो गया कि उस काल का मुख्य व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली और जल प्रणाली पर आधारित था। उस समय व्यापारी बैलगाड़ियों पर सामान लादकर शहर जाते थे। वे शहर-शहर घूमते रहते थे और अपना व्यापार जारी रखते थे, और ये व्यापारी कोई और नहीं बल्कि उसी घोर बंजारा समुदाय से थे, जो आज भी अपनी भोजन-समृद्ध जीवन शैली और जीवित रहने की अदम्य इच्छाशक्ति के लिए जाना जाता है। समय बदला, सरकारें बदलीं, सामाजिक रीति-रिवाज बदले, लेकिन घोर बंजारा लोगों का संघर्ष अडिग रहा। वे उस प्राचीन व्यापारिक संस्कृति के जीवित अवशेष हैं जिनके कंधों पर कभी सभ्यता की अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी।  उनका अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि इतिहास स्वयं उनका साक्षी है।

बंजारा लोगों का इतिहास सिर्फ उनकी यात्राओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उनके नाम में भी असंख्य साम्राज्य छिपे हुए हैं। प्राचीन काल में जब वे व्यापार करते थे तो उन्हें वनम कहा जाता था जिसका अर्थ होता है व्यापारी। समय के साथ यह शब्द अप्रचलित हो गया। आज भी अगर बंजारा महिलाओं के कपड़ों और आभूषणों को गौर से देखा जाए तो उनमें सिंधु घाटी सभ्यता की छवि नजर आती है। रंग-बिरंगे कांच के मोतियों से बने उनके आभूषण, उनके अलंकृत वस्त्र, सभी उसी विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं जो हजारों वर्षों से चली आ रही है। ये सिर्फ सजावटी सामान नहीं हैं बल्कि अपनी संस्कृति की अमर पहचान हैं।  बंजारा समुदाय न केवल खानाबदोश था, बल्कि प्राचीन काल में यह भारत का व्यापारिक हृदय था। प्राचीन काल से लेकर मध्य युग तक यात्रा और व्यापार उनकी पहचान थे। वे माल और लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में कुशल थे। लाखों बैलों द्वारा खींचे जाने वाले उनके विशाल रथ किसी साम्राज्य की सेना से कम नहीं लगते थे। वे सिर्फ यात्री ही नहीं थे बल्कि जीवन के आधार स्तंभ थे, जो आवश्यक वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते थे। वे अपने साथ अनाज, नारियल, खजूर और अन्य आवश्यक वस्तुएं ले गए।

लेकिन उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका नमक व्यापार में थी। नमक न केवल स्वाद का स्रोत था, बल्कि आजीविका का आधार भी था। उनकी पहचान नमक व्यापार से इतनी गहराई से जुड़ी हुई थी कि उन्हें लावणा कहा जाने लगा, जिसका अर्थ है नमक वाहक।  यही शब्द बाद में लामन बन गया और इसी से उनका दूसरा नाम लामन बंजारा पड़ा। वे सिर्फ सड़क यात्री नहीं थे, वे उस स्थान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे। उनका हर कदम, उनकी हर हरकत इतिहास के पन्नों में एक सुनहरा अध्याय जोड़ती है। इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि बंजारा लोग कहां से आये थे। वे हवा के साथ बहते रहे, नई ज़मीनों और नए आसमानों को अपना घर बनाते रहे, लेकिन उनके खून में बहने वाली बहादुरी किसी भी सबूत से ज़्यादा शक्तिशाली है। वे स्वयं को महान योद्धा महाराणा प्रताप का वंशज मानते हैं। वही वीरता, वही स्वाभिमान और वही अदम्य उत्साह आज भी रंगों में मौजूद है। इस यात्रा में वे विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिले, विभिन्न भाषाओं के संपर्क में आए और इस प्रकार एक अनूठी और समृद्ध संस्कृति विकसित हुई।

उनका हर गीत, उनकी हर परंपरा, उनकी बोली, सब कुछ विविधता का संगम है। सन् 1396 में भारत में भयंकर अकाल पड़ा। हर जगह लोग भूख से पीड़ित थे, धरती सूखी थी, और मौत का साया मंडरा रहा था। लाखों लोग भोजन के लिए तरस रहे थे, लेकिन तब बंजारों ने इतिहास रच दिया। वे नेपाल, चीन, तिब्बत, ईरान और काबुल जैसे दूर देशों से खाद्यान्न से भरे कारवां भारत लाते थे। उसने भूखे लोगों को बचाया। वह सिर्फ एक व्यापारी नहीं थे, वह एक जीवनरक्षक के रूप में आये थे। मानवता के प्रति उनकी इस सेवा ने उन्हें अपार सम्मान दिलाया। लोग उसकी दयालुता, बहादुरी और समृद्धि का सम्मान करने लगे। उनकी ख्याति इतनी बढ़ गई कि लोकगीतों में उनकी महिमा का बखान होने लगा।  मैं एक भाग्यशाली लामन पति चाहता हूँ. मैं अपने हाथ में सोने का कंगन, कमर में चांदी का कंगन चाहता हूँ। मुझे ऐसा ही पति चाहिए. यह ओवी लोकगीत उस समय बंजारों के गौरव और सम्मान को दर्शाता है। वे सिर्फ व्यापारी नहीं थे, वे रक्षक थे, वे मसीहा थे। मुगल शासन के दौरान बंजारा समुदाय राजस्थान से महाराष्ट्र आया था। वे सिर्फ खानाबदोश नहीं थे बल्कि देश की धमनियों में दौड़ने वाले यात्री थे, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की नब्ज समझते थे, हर रास्ता मालूम था, हर घाट का रहस्य मालूम था, जहां लोग जाने से डरते थे, वहां बंजारों के डेरे बेखौफ बढ़ते थे, देश के कोने-कोने तक व्यापार पहुंचाने का हुनर बंजारों में था, देश के सुदूरतम हिस्सों में कोई सामान पहुंचाना हो तो बंजारों से बेहतर कोई नहीं था, उनके बनाए रास्तों पर आगे चलकर घाट मार्ग और व्यापार मार्ग विकसित हुए, लेकिन यह सफर आसान नहीं था, रात के अंधेरे में डाकू, चोर और लुटेरे छिपे रहते थे।

काफिलों पर हमले हुए लेकिन बंजारों ने कभी हार नहीं मानी, उन्होंने तलवारें उठाईं, खुद को योद्धा बनाया और हर चुनौती का डटकर सामना किया, ये वो बहादुर लोग थे जो अपने हर काफिले के साथ एक नया इतिहास लिखते रहे, इतना ही नहीं बंजारे देश की आर्थिक और राजनीतिक हलचल पर भी नज़र रखते थे, वो न सिर्फ़ व्यापारी थे बल्कि चतुर रणनीतिकार भी थे, उन्हें पता था कि कहां व्यापार बढ़ रहा है, कहां सत्ता बदल रही है और कौन सा रास्ता सबसे सुरक्षित रहेगा, बंजारों की पहचान सिर्फ़ व्यापार तक ही सीमित नहीं थी, वो युद्धों के दौरान भी अहम भूमिका निभाते थे।  जब सेनाएं आपस में भिड़ती थीं तो बंजारा जनजातियां दोनों पक्षों को आपूर्ति प्रदान करती थीं। वे न किसी के पक्ष में थे, न किसी के खिलाफ, उन्होंने तो बस अपना कर्तव्य निभाया। उनके सिर पर बंधी नींबू की टहनियों को देखकर यह पहचाना जा सकता था कि वे बंजारा जनजाति के लोग थे, जो सामान लेकर आ रहे थे।  किसी भी सैनिक को उन्हें नुकसान पहुंचाने की इजाजत नहीं थी। मराठों से लेकर मुगलों तक, बंजारे हर शासक के लिए महत्वपूर्ण थे। इसीलिए बंजारा नेताओं का दरबार में विशेष स्थान था। उदाहरण के लिए, लखी राय बंजारा, जो मुगल दरबार में सम्मानित स्थान रखते थे। वे मुगलों को कपास, चूना पाउडर और कैल्शियम हाइड्रोक्साइड की आपूर्ति करते थे। मध्य एशिया से भारत तक व्यापार भी इनके माध्यम से होता था। उनके पास चार बड़ी सेनाएँ थीं, जिनमें से प्रत्येक में 5,000 बैलगाड़ियाँ थीं और उनकी सुरक्षा के लिए एक लाख सैनिक तैनात थे। उनके बेड़े में लाखों गाय, भैंस, खच्चर, घोड़े और बैल शामिल थे। वे सिर्फ व्यापारी ही नहीं थे बल्कि भारत की आर्थिक और सामरिक रीढ़ थे, जिनके बिना कोई भी युद्ध लंबे समय तक नहीं चल सकता था।

बंजारों के झुंड शहरों से बड़े थे। हजारों परिवारों की आजीविका लाखी राय बंजारा जैसे वीर योद्धाओं पर निर्भर थी। जब भी उनके झुंड किसी क्षेत्र से गुजरते तो उनके पहियों के निशान वहां नई सड़कों की नींव रखने के लिए इस्तेमाल किए जाते। एक व्यवसायी होने के अलावा, वह एक निर्माण मजदूर भी थे। अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने उत्तर भारत में सैकड़ों झीलें, कुएँ, धर्मशालाएँ और कई किले बनवाए। वे सिर्फ व्यापारी ही नहीं थे बल्कि समाज के सच्चे निर्माता थे। लखी राय बंजारा जैसे योद्धा अकेले नहीं थे। कई बंजारों ने भारतीय व्यापार की नींव मजबूत की और अपनी विरासत को अमर बना दिया। वे न केवल व्यापार के वाहक थे बल्कि संस्कृति के भी प्रकाश स्तंभ थे।  1800 के दशक में, जब भारत में ब्रिटिश प्रभाव बढ़ा, तो यूरोपीय संस्कृति में पले-बढ़े ब्रिटिश अधिकारी बैलों और घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले जिप्सी कारवां को नीची नजर से देखने लगे। इस गलतफहमी के कारण उन्होंने जिप्सी व्यापार को ख़त्म करने की साजिश रची, लेकिन उन्हें हराना आसान नहीं था। जिप्सियों की शक्ति और एकता के सामने अंग्रेज असहाय थे। जब इस व्यापार को रोकना संभव नहीं हुआ तो उन्होंने एक चाल चली और बंजारा समुदाय को अपराधी जाति घोषित कर दिया। इसी योजना के तहत भारत में नई परिवहन प्रणालियाँ शुरू की गईं। 1853 में रेलगाड़ियाँ चलने लगीं, पक्की सड़कें बनने लगीं और पुराने व्यापार मार्ग धीरे-धीरे लुप्त होने लगे। बंजारों के विशाल 'तांड्यों' के लिए कोई जगह नहीं बची थी, लेकिन बंजारे हार मानने वालों में से नहीं थे।  उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और क्रांति का हिस्सा बन गए।

कुछ बंजारा नेताओं ने ब्रिटिश दमन के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित की। उन्होंने अपने समुदाय को संगठित किया, हथियार उठाए और ब्रिटिश नीतियों का विरोध किया। उन्होंने जंगलों और पहाड़ियों में छिपकर गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई। उनके 'शिविर' अब व्यापार के लिए नहीं, बल्कि स्वतंत्रता के लिए थे। यह संघर्ष लंबे समय तक चला और धीरे-धीरे बंजारा लोगों की स्थिति कमजोर हो गई। वित्तीय सहायता कम होने लगी। उनके व्यापार पर पहले ही प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिससे रसद और हथियारों की आपूर्ति कम हो गई थी। अंग्रेजों की विशाल सेना और रणनीतिक चालों के सामने बंजारा विद्रोह कमजोर पड़ने लगा। धीरे-धीरे संघर्ष कम हो गया, लेकिन बंजारे अपनी अंतिम सांस तक अपने आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे।  एक समय खानाबदोश बंजारा जनजातियाँ महाराष्ट्र के विदर्भ, मराठवाड़ा और खानदेश में स्थायी रूप से बस गईं। अब उन्होंने जमीन से जुड़ने का फैसला किया, कुछ तांडियों ने खेती शुरू की तो कुछ ने मजदूरी करना शुरू कर दिया, बंजारा महिलाएं खेतों में पसीना बहाने लगीं और पुरुष मजदूरी कर संघर्ष करने लगे, कई बंजारे गन्ना काटने के कठिन काम में जुट गए, जहां सूरज की तपिश भी उनके लिए दर्द की आग बन गई, बंजारा समुदाय जो कभी समृद्ध था और पूरे देश में व्यापार करता था, अब अंग्रेजों की नीतियों के कारण गरीबी से जूझने लगा, सरकार के फैसलों ने उनके तांडियों को तबाह कर दिया, लेकिन 1952 में आजादी के बाद भी उनके दिलों में संघर्ष की ज्वाला जल रही थी।

बंजारा लोगों पर लगा अपराधी का कलंक हटा दिया गया। बाबासाहेब अम्बेडकर के अथक प्रयासों से बंजारा समुदाय को अनुसूचित जाति एवं जनजाति में शामिल किया गया, जिससे शिक्षा एवं रोजगार के नए अवसर खुले।  बंजारा लड़के और लड़कियां, जो कभी खानाबदोश जीवन जीने को मजबूर थे, अब उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बना रहे हैं। संघर्ष की धूल झाड़कर उन्होंने अपने सपनों को नए पंख दिए और अब उनका सफर उन्हें उज्जवल भविष्य की ओर ले गया है। कभी खानाबदोश और उपेक्षित माने जाने वाले बंजारा समुदाय के युवा अब शिक्षा की रोशनी में अपना भविष्य बनाने लगे हैं। टांडो छोड़कर बंजारा युवा बड़े शहरों में चले गए, जहां उन्होंने नौकरियों में अपने लिए जगह बनाई। महाराष्ट्र की धरती ने वसंतराव नाइक और सुधाकरराव नाइक जैसे महान नेताओं को देखा, जिन्होंने इस समुदाय की शिक्षा और आर्थिक प्रगति के लिए अनगिनत प्रयास किए।  उनके प्रयासों से उन खोए हुए लोगों तक विकास की लहर पहुंची, जिनके पूर्वजों ने कभी देश की अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी। बंजारा लोगों की यह यात्रा न केवल अतीत का गौरव है बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा भी है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, अगर हौसला मजबूत हो तो हर रास्ता अपने आप साफ हो जाता है।