भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में पवार वंश केवल एक वंश परंपरा नहीं, बल्कि बंजारा समाज की स्वायत्तता, न्यायिक नेतृत्व और टांडा सभ्यता के स्थापक के रूप में प्रतिष्ठित है, टांडा प्रणाली का संगठन, संचालन और न्याय व्यवस्था — इन सबका शिल्पकार यह पवार वंश ही रहा है, जिसने चलते-फिरते समाज को भी एक संगठित, उत्तरदायी और नैतिक दिशा प्रदान की,
सामाजिक न्याय, बलिदान, स्वायत्तता, रणनीति और सांस्कृतिक संरक्षण की जीवित परंपरा का नाम रहा है। पवार वंश को बंजारा टांडा प्रणाली के निर्माता माना जाता है। बंजारों की प्रसिद्ध टॉंडा प्रणाली का सृजन और संगठन पवार वंश ने किया, जिसने इसे एक सुव्यवस्थित, आत्मनिर्भर और न्यायपरक सामाजिक व्यवस्था के रुप में सुस्थापित किया। उनकी सामाजिक न्याय, बलिदान और संघर्ष की गौरवशाली विरासत प्रेरणादायी रही
पवार वंश बंजारा में एक प्राचीन वंशगाथा के रुप में प्रतिष्ठित है , जिससे बारह शाखाऐ बनीं. इन शाखाओं से आज के टॉंडों में जो सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्था निर्मित हुई , वह हमारे सामुहिक आत्मबोध की रीढ़ है. पवार वंश की शाखाऐ केवल वंशक्रम नहीं , अपितु हमारी टॉंडा सभ्यता, न्यायीक नेतृत्व परंपरा और सामाजिक स्वायत्तता की जीवंत अभिव्यक्ति हैं. जो आज भी देशभर के हर बंजारा टॉंडाओं में नायक सभाओं , पंचायत, परंपरा और न्याय निपटारा के रूप में विराजमान है, इनके बिना टॉंडा न तो संगठित होता न पंच पंचायत पंरपरा विकसित होती. टॉंडा पंचायत की सभा परंपरा इन्हीं पवार वंश की देन है..
पवारवंश की बारह शाखाएँ – झरपला, गोराम, बिजरावत, वाकडोत, छय्यावत, बिसलावत, नुनसावत, कूडावत, वाणी, त्रिवाणी, लोकावत, और देगणौत – न केवल अपनी विशिष्ट भूमिका निभाती रहीं, बल्कि संकट के समय चलते-फिरते टांडों के माध्यम से एक लोकसंवचित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण भी करती रहीं
•झरपला शाखा (उपशाखाएँ: 4) की टांडा सभ्यता , सामाजिक न्याय, विवाद निवारण और संघठन में अग्रणी भूमिका रही है. 1871 में लागू किए गए कुख्यात ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ के विरोध में अग्रसर नेतृत्व किया जब ब्रिटिश सत्ता ने पूरे समुदाय को अपराधी घोषित किया, तब झरपला टांड़ों ने गुप्त मार्गों से समुदाय को सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाया और कानूनी मोर्चे पर डटे रहे ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी रिकॉर्ड्स’ (1871–75) में इनकी गिरफ्तारी और आंदोलन का उल्लेख दर्ज है.
•गोराम शाखा (उपशाखाएँ: 9) की भूमिका सबसे प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से केंद्रीय रही है शिवाजी महाराज की सेनाओं में इन्हीं के नेतृत्व में युद्धध्वज की स्थापना और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन होता था 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी गोराम शाखा ने प्रतीकात्मक ध्वजों और मंत्रोच्चारण के माध्यम से विद्रोह की लहर को धार्मिक आस्था से जोड़ दिया इसका उल्लेख ‘शिवाजी प्रशस्ति’ (1680) में स्पष्ट रूप से किया गया है
•बिंजरावत शाखा (उपशाखाएँ: 5) को रसद आपूर्ति और गुप्त परिवहन में अपूर्व दक्षता प्राप्त थी… मराठा काल में ये गुप्त मार्गों से दुर्गों तक अन्न और अस्त्र-शस्त्र पहुंचाते रहे, अंग्रेजों के समय में भी इन्होंने जासूसों को चकमा देते हुए हथियारों की आपूर्ति की… सरदेसाई (1957) और हैदराबाद रेजीडेंसी के अभिलेख (1872) में इनके कार्यों का स्पष्ट विवरण उपलब्ध है
•वाकडोत शाखा (उपशाखाएँ: 4) ने पशु चिकित्सा, बीज संरक्षण और अकाल के समय अन्न वितरण जैसे कार्यों में अग्रणी भूमिका निभाई युद्धों के दौरान घायल पशुओं की सेवा और कृषि बीजों के सुरक्षित भंडारण से इन्होंने बंजारा टांडों की खाद्य सुरक्षा को सुदृढ़ बनाए रखा ‘बंजारा लोककथाएँ’ (संपादक तिवारी, 1998) में इनके योगदान का उल्लेख सम्मानपूर्वक किया गया है
•छय्यावत शाखा (उपशाखाएँ: 6) बंजारा समाज की पंचायती परंपरा की संवाहक रही है मुगल और ब्रिटिश काल में जब बाहरी कानूनों ने स्वशासन पर चोट की, तब छय्यावतों ने अपने निर्णयों के द्वारा टांडों को आत्मनिर्भर रखा 1857 के विद्रोह में भी इन्हीं के सहयोग से टांडों की रणनीति तैयार हुई ‘मध्य भारत जिला गजेटियर’ (1908) इसका दस्तावेजी प्रमाण है…
•बिसलावत शाखा (उपशाखाएँ-3) छापामार युद्ध कला में दक्ष थी शिवाजी महाराज की ‘गनिमी कावा’ रणनीति में इनका योगदान उल्लेखनीय रहा विशेषतः सिंहगढ़ युद्ध (1670) में बिसलावत पवारों ने बलिदान दिया ‘तानाजी मालुसरे की सेना की सूची’ में 12 पवार सैनिकों के नाम दर्ज हैं – यह शेजवलकर (1946) द्वारा प्रमाणित किया गया है इसके अतिरिक्त, सिख सेना में इन्होंने बंदूकधारी दस्तों का नेतृत्व किया ‘शिवभारत’ (परमानंद, 1697) और पंजाब विश्वविद्यालय के सिख इतिहास शोधपत्रों में इनके योगदान को मान्यता दी गई है.
•नुनसावत शाखा (उपशाखाएँ-2) और कूडावत शाखा (उपशाखाएँ: 5) मुगल और ब्रिटिश दमनकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना को जीवित रखने वाली शाखाएँ थीं सच्चियाय माता जैसे देवी अनुष्ठानों को गुप्त रूप से आयोजित कर इन्होंने समुदाय का मनोबल सुदृढ़ बनाए रखा ‘फॉरेस्ट रिपोर्ट’ (1912) में इन अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है.
•वाणी शाखा (उपशाखाएँ-3) और त्रिवाणी शाखा (उपशाखाएँ: 2) मौखिक इतिहास की संरक्षक रही हैं, सिख गुरुओं की गाथाओं से लेकर शिवाजी महाराज के पराक्रम तक, इन्होंने “वीर निरंकारी” जैसे भजनों की रचना द्वारा जनस्मृति को अक्षुण्ण रखा… मैकॉलिफ (1909) और बंजारा भजनावली (मोहन सिंह वाणी) इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं.
•लोकावत शाखा (उपशाखाएँ-6) और देगणौत शाखा (उपशाखाएँ: 3) ने 1857 की क्रांति के समय टांडों के मध्य समन्वय और जनजागरण का कार्य किया जब ब्रिटिश सत्ता ने संपर्क व्यवस्था को बाधित किया, तब इन शाखाओं ने संदेशवाहक और संगठनकर्ता की भूमिका निभाई स्टोक्स (1986) ने इन्हें 1857 की जनक्रांति में “गोपनीय संपर्क तंत्र” का हिस्सा कहा है
लोकसंवचित टांडा व्यवस्था में प्रत्येक शाखा की विशिष्ट भूमिका रही है – गोराम ने ध्वज पूजन और संस्कारों का नेतृत्व किया, बिंजरावत संसाधनों के नियोजन में, झरपला ने सामाजिक न्याय , विवाद निवारण और प्रमुख मार्गदर्शक के रूप में , वाकडोत ने कृषि और पशुधन व्यवस्था में, छय्यावत ने परंपरा संवाहक में, बिसलावत ने युद्ध संचालन और सुरक्षा व्यवस्था में, जबकि वाणी और त्रिवाणी शाखाओं ने लोकस्मृति और इतिहास के संरक्षण में योगदान दिया…
डॉ. गणेश पवार (2015) इसे बंजारा समाज की स्वायत्तता की जीवित मिसाल मानते हैं, उनका कथन है – “टांडा एक चलता-फिरता सामाजिक तंत्र था, जहाँ कोई भूखा न रहता था और कोई निर्णय बिना पंचों के नहीं लिया जाता था”
अंत में, पवार वंश की यह गौरवगाथा केवल अतीत की बात नहीं है, बल्कि आज भी बंजारा टांडों में चल रही नायक सभाएँ, न्याय पंचायतें और ध्वजपूजन परंपरा उसी विरासत की जीवंत झलक देती हैं… यह सामाजिक न्याय और स्वशासन का आदर्श मॉडल है, जिसे आधुनिक भारत भी सीख सकता है…
- राजूसिंग आडे
संदर्भ सूची (References):
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मराठा इतिहास एवं संस्कृति – मराठा काल में बंजारा टांडा और रसद व्यवस्था पर विस्तृत शोध…
3. बंजारा लोककथाएँ, संपादक: तिवारी (1998) – बंजारा समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास का संग्रह…
4. मध्य भारत जिला गजेटियर (1908) , टांडा पंचायत व्यवस्था और सामाजिक न्याय पर प्रलेखित विवरण…
5. शिवभारत, परमानंद (1697) – मराठा कालीन युद्ध नीति और बंजारा सैनिकों के योगदान का उल्लेख…
6. सिख इतिहास शोध पत्र, पंजाब यूनिवर्सिटी -
सिख सेना में पवारवंश के बंदूकधारी दस्तों का उल्लेख…
7. बॉम्बे प्रेसीडेंसी रिकॉर्ड्स (1871–75) – ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ के विरोध और बंजारा आंदोलन के ऐतिहासिक अभिलेख…
8. फॉरेस्ट रिपोर्ट (1912) – धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक संरक्षण में बंजारा शाखाओं की भूमिका…
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11. डॉ. गणेश पवार. (2015). बंजारा समाज: स्वायत्तता का इतिहास. तेलंगाना साहित्य अकादमी
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13. शेजवलकर, टी.आर. (1946). Battle of Sinhagad: A Reappraisal
14.. डॉ. बी. कृष्णैया नायक (2006), Banjara Dharma Shastra, हैदराबाद: Banjara Seva Parishad…
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